रोज मिलते हैं दिन और रात
एक काली स्याह रात में ढलने
एक तपतपाती दोपहर में तपने ।
रोज मिलते हैं दिन और रात एक सतरंगी मुस्कान लिए
उन्हें काली गहरी रात का कोई सदमा नहीं
तपतपाती दोपहर में भुन जाने का कोई खौफ नहीं ।
रोज मिलते हैं दिन और रात एक शबनमी मुस्कान लिए
एक अन्तरंग चुप्पी लिए
अहसासों की अदला बदली करते
न इधर देखते न उधर देखते अपलक निहारते एक दूसरे को
कभी ढलते हैं काली गहरी रात में
कभी आग उगलती दोपहर में
स्वर्णिम आभा लिए रोज मिलते हैं दिन और रात
Friday, October 30, 2009
Thursday, October 29, 2009
पहाडों से उतरती नदी हूँ गीत मेरा गा न सकोगे
समंदर के अन्तःतल में जा बसूँगी पता फिर पा न सकोगे ।
बह जाने दो गुनगुनानेदो
शाम की रक्ताभ मुस्कान सुबह की बेखौफ लालिमा
दिन की चिलचिलाती धूप रात का घुप्प अँधेरा पीती मुझे तुम
आते तूफानों से जरा हंस के मिलनेदो
अपना गीत ख़ुद रचती हूँ अपनी मंजिल का सही पता रखती हूँ मैं पहाडों से उतरतीनदी हूँ .....
समंदर के अन्तःतल में जा बसूँगी पता फिर पा न सकोगे ।
बह जाने दो गुनगुनानेदो
शाम की रक्ताभ मुस्कान सुबह की बेखौफ लालिमा
दिन की चिलचिलाती धूप रात का घुप्प अँधेरा पीती मुझे तुम
आते तूफानों से जरा हंस के मिलनेदो
अपना गीत ख़ुद रचती हूँ अपनी मंजिल का सही पता रखती हूँ मैं पहाडों से उतरतीनदी हूँ .....
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