Monday, December 31, 2012

हाँ ,मैं गलती से ही आज के दिन किसी पार्टी में  गयी हूँ
फिर भी बेचूक आज के दिन
समय सारी औपचारिकताएं भूल मेरी शाम की चाय पर आ धमकता है
मेरी  कड़क चाय को और कड़क करने
मेरी अलमारी में सहेज कर रखी चीज़ों को और सहेजने ---
नयी चीज़ों को रखने के लिए जगह बनाने
मेरे घर की हर दीवार ,हर दरवाजे की जांच पड़ताल करने
वो मेरे कंधे पर इस तरह हाथ रखता है जैसे वो मेरे सारे गम और मेरी सारी खुशियाँ पहचानता है
मुझे ये अहसास कि कोई है जिसके आगे मैं अपने खुद के आंसू ढलका सकती हूँ ,जिसके आगे मैं अपनी खुद की हंसी हंस सकती हूँ
पंख लगा देता है
मैं आनन् फानन में सामने जाती सड़क की लम्बाई नाप लेती हूँ
रात के अँधेरे में
आज की ठण्ड से डरी सहमी मैं
नींद के उजालों से खुलकर मिलती हूँ
उन उजालों की बात ध्यान से सुनती हूँ
और सोचती हूँ 
मेरी ही आँखें बंद होगी जो कदम -कदम पर अपने अंधरों से डरी  मैं इन  उजालों से  दया की गुहार  लगाती  रही
अरे .मैं तो इनकी कितनी अपनी हूँ !
फिर अगले दिन से समय ने जैसे मेरी अलमारी जमाई होती है ,
उसके ,मेरे  कमजोर पड़ते दीवारों और दरवाजों को 
नया चूना और कीलों से दी मजबूती को
मैं पूरा सम्मान देती हूँ .
मैं पूरा साल समय के मजबूत हाथों से मेरे कंधे थपथपाने का इंतज़ार करती
उसके आज वाले प्यार को ढूँढती रहती हूँ
उसकी बनायी दीवारों और दरवाजों को पूरा सम्मान देती
आज की ढलती शाम भी समय से मुझे  हमेशा की तरह रूबरू करा रही है
मैं क्या फिर एक साल समय के इस प्यार का इंतज़ार करूंगी

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