मैं- माघी अमावस्या
अपने ही अंधेरों से घिरी और डरी
तेरी बंसी की तान को
अपने अन्तर मैं बसने देने का दुस्साहस कैसे करती!
तेरे प्रेम के दिए की जलती लौ से, आँख मिलाने की, बेवफाई कैसे करती!
मैं अन्तर तक कांपती
अपने अंधेरों से
तेरे साहसी प्रेम से
कि कोई कोना
अंधेरे का मेरा
दुस्साहस कर बैठा
तेरे प्रेम के दिए कि जलती लौ को, छू बैठा
गीत कई अनकहे,उदास,निरीह और लाचार जगा बैठा ।
मैं माघी अमावस्या
इन गीतों को पार लगाती
चली जा रही हूँ
तुझसे दूर इसी चाहत में कि
मेरे अपने ही अंधेरों से फूटे इन गीतों में कोई गीत हो
जिसे गाकर
मैं माघी अमावस्या
ढल जाऊं हरियाली अमावस में,या
शरद पूर्णिमा की मधुर रात में
या बन जाऊं मैं तेरा वृन्दावन धाम।
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