Tuesday, November 24, 2009

दिन

उसने रोज की तरह आज भी
पूरा पहाड़ सा दिन खोद डाला है -
मिटटी कर दिया है
वो दिन जों पहाड़ बनकर उसके और उसके बच्चों के बीच बड़ी बेशर्मी से आ खड़ा होता है
उसने उसे समतल कर दिया है उसका नामो निशाँ मिटा दिया है
वो जो एक खाई उसके और उसके बच्चों के बीच थी
उसने भर दी है
हाँ
दिन किसी आदम खोर शेर की तरह
उससे घायल हुआ , पड़ा -पड़ा अन्तिम साँसें गिन रहा है
शाम गुलाबी मुस्कान लिए खड़ी
रोज की तरह उसे विजय-माला पहनाती विदा होने को है
वो उस राजा की तरह जो रण-भूमि को फूलों की सेज समझता है
जो हाराना जानता ही नहीं
तन कर खड़ी है --
वो अपने बच्चों का हाथ थाम चल दी है पगडंडी पर ,
उस जगह की तरफ़ जिसे वो अपना घर कहती है और बाक़ी दुनिया जिसे झोंपड़ी कहती हैं ।

रोज की तरह वो अपनी झोपड़ी बुहार कर पानी ले आई है
उसके हाथों से मंजे बरतन खुशी से फूले नहीं समा रहे है
रोज की तरह उसके हाथ से पकी रोटी खा कर बच्चे ,खेल रहे हैं
पूरा दिन में बच्चे बस अभी चहके हैं
वो पूरा दिन में बस अभी बैठी है----
वो निढाल नहीं है चुप ख़ुद को तैयार कर रही है
फ़िर एक पहाड़ से दिन को समतल करने के लिए
जो उसके और उसके बच्चों के बीच आ जाता है ,
फ़िर एक आदमखोर? दिन को ढेर करने के लिए
जो उसके बच्चों की रोटियां छीन लेता है!
फ़िर एक साहूकार दिन का हिसाब बराबर करने
जो उन्हें बेघर करने की धमकी देता है ।

थोड़ी देर बाद वो बच्चों को लेकर सो जाएगी
और -------
बच्चे सपना बुनते सो जायेंगे
सपना एक ऐसी जगह का
जहाँ दिन पहाड़ से नहीं होते
जहाँ दिन आदमखोर शेर नहीं होते
जहाँ दिन साहूकार नहीं होते
जहाँ मां की गोदी में किसी का डर नहीं होता?!
सपना- एक ऐसी दुनियां में ले जाती पगडंडी का .

उनकी मां सड़क बनाने वाली मजदूर है
और उनकी मां की बनाई सड़क
उनके सपने पर हंसते -हंसते बेहाल है
और उन्हें अपनी मां के साथ सड़क बनानेवालों की
लाइन में खड़ा कराने को तैयार है ।

वो नींद में ख़ुद को तैयार कर रही है
फ़िर एक पहाड़ सा दिन समतल करने
फ़िर एक आदमखोर दिन को ढेर करने ...
फ़िर एक साहूकार दिन का हिसाब चुकता करने

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