Tuesday, November 10, 2009

हवा सावन की

हवा सावन की कुछ ऐसी बात कह गयी
वो, जो बरसों से अपने औरत होने में शर्मिंदा थी
फ़िर से कुंआरी हो गयी ।
हवा सावन की ....

झरोखा खुला छोड़
बूढी नानी सो गयी
पूरी रात अपने अल्हड सपनों की दुनिया में जागती रही
सुबह बिना शक्कर की चाय मीठी समझ कर पी गयी।
हवा सावन की ....

एक कुंआरी बाहर बैठ
हवा से गप्पें हांकने लगी
फ़िर अपने ही भय से भयभीत
चुप दुबक कर सो गयी।
हवा सावन की ....

राख -राख उड़ गयी
कुंदन पीछे रह गया
खूबसूरती के भटके पावों को
नई सड़क मिल गयी ।
हवा सावन की ...

हॉस्पिटल की कैंटीन पर चाय बेचता श्याम
अचरज से भर गया
ख़ुद से मीलों दूर बैठी , बीमार असमय बूढी हुई मां को
अपनी जवानी का गीत गुनगुनाते देखने लगा !
किसी बनिए की तिजोरी में रखी बहीखाते की तरह
अपनी जवानी के सपने निकाल वो धुनने लगी
बेटे की ठंडी पड़ती दुनिया के लिए गरम रजाई बनने लगी
अपनी बीमारी, अपने बुढापे को पीठ पर लाद वो
बेटे के ब्याह का सपना संजोने लगी
आने वाली पीढी के लिए कोई
अपनी विरासत तैयार करने लगी
हवा सावन की कुछ ऐसी बात कह गयी
वो, जो बरसों से अपने औरत होने पर शर्मिंदा थी फ़िर से कुंआरी हो गयी ।

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